धूल जमीरों पर जमीं है
आइनें बुहार रहे है
हम वो है जो सदियों से
यही खता दोहरा रहें है
पांव में कांटों के निशान
जूतों मे छुपा रहे है
राहों में कांटें बोने से
बाज नहीं आ रहे है
अपनों की कामयाबी पर
मन ही मन भुनभुना रहे है
खुशी दिखाने सबसे आगे
मजबूर हो कर आ रहे है
जितनें गड्डे राहों में
दूसरों के बना रहें है
अपने लिये रास्ते चुनने
से भी घबरा रहे है
मंजिले उनको मिली
जो चलने की जुर्रत कर सके
हमारे जैसे तो केवल
भीड़ बढ़ा रहे हैं
- नमिता दुबे
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें