शहीदों के नाम पूरी कविता पढ़ें।
जब-जब वहशी पत्थर ले सैनिक को मारा करते हैं,
दिल्ली वाले राजधरम का कंस पछाड़ा करते हैं।
अपने घर के बागी बच्चे अपनो को ही मार रहे,
सिंहो की टोली से कह दो निकले पर हुशियार रहे।
माना हम मजबूत खड़े है टकराने फौलादों से,
मगर बचायें खुद को कैसे जयचंदी औलादों से।
चीखें दूर चली जाती है राजघरों के कानो से,
शेरो ने अनुबंध किया है गीदड़ की संतानों से।
पहले घर के अंदर वाले आतंकी हम साफ करें,
सीने में खंजर घोंपे हर बार उसे क्यों माफ़ करे।
आखिर कब तक शोक मनायें लिपटे वीर तिरंगों का,
कितना मुश्किल जीना होगा सोचो बूढ़े कंधों का।
कब तक आँगन आँसू के शैलाब में यूँ ही डूबेगा,
कैसे रात कटेगी कोई घर में आकर पूँछेगा।
मैंने देखी माँ की ममता बूढी आँखे पथराई,
पत्थर सीना होने पर भी मेरी आँखे भर आई।
जंग करा दो मेरी मानो मैं भी लड़ने आऊँगा,
तोड़ कलम की नोक उठा मैं भी बंदूक चलाऊँगा।
जान रहेगी सीने में तब तक कोहराम मचा दूँगा,
विश्व क्षितिज के नक्शे से मैं पाकिस्तान मिटा दूँगा।
कवि
हरेन्द्र सिंह कुशवाह एहसास
8460409278
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