लबों पर तैरती झूठी हँसी अच्छी नहीं लगती


लबों   पर    तैरती    झूठी  हँसी   अच्छी   नहीं   लगती,
अरे   बस  भी  करो   अब  दिल्लगी  अच्छी नहीं लगती।

कमी   मेरी   तुम्हें   महसूस   होगी   कह   नहीं   सकता
मगर   सच   है  मुझे  तेरी  कमी   अच्छी   नहीं   लगती।

अगर  तुम  हो  तो  रोशन  है  अँधेरों  से  भी  शब  वर्ना
दिवाली  लाख  आए  फुलझड़ी   अच्छी   नहीं   लगती।

मिली  है  जिंदगी   आओ   बिछड़कर  ही  जिया  जाए
बिना मतलब की मुझको  खुदकुशी अच्छी नहीं लगती।

मिले  दरिया  न  आकर  तो   रहे   प्यासा   समंदर   भी
खुदाया   इस  तरह   की  तिश्नगी  अच्छी  नहीं  लगती।

शहादत  पर है  मुझको  फ़क्र  फिर भी फिक्र है क्योंकि
किसी के  घर  की  बुझती  रोशनी  अच्छी  नहीं लगती।

लहू  बहता   हुआ   देखा   जो  कत्लेआम   का   मंजर
मुझे  अब   छत   पे  अपने  चाँदनी अच्छी नहीं लगती।

अरे अब हँस भी दो आकर जरा 'संजय' की महफिल में
हमेशा   आँख   में   इतनी   नमी   अच्छी   नहीं  लगती।

            कवि संजय कौशाम्बी
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