अँधेरे में कभी देखूँ तो तारो में चमकती हो।


अँधेरे   में   कभी   देखूँ  तो  तारों  में  चमकती   हो।
सबेरे   धूप  में  मिल   कर  मुडेरों  पर  मटकती  हो।

अगर  मैं  तोड़ने  जाऊँ  जो  अमरूदों  को  पेड़ों से,
वहाँ  हर  डाल  में  हर  पात में  तुम ही लटकती हो।

कभी  पकड़ूँ  मैं ख्वाबों में जो तेरा हाथ साहिल पर,
उसे  मझधार  में  जाकर न  जाने  क्यों झटकती हो।

इरादा  कर  लिया  तुमने  मेरा  जब खून  करने  का,
तो आकर के मेरी जानिब बताओ क्यों ठिठकती हो।

सलामत  तुम  न  रख  पाये दिया जो दिल तुम्हे मैंने,
जला  वो  रात  दिन  जैसे कोई चिमनी धधकती हो।

ग़ज़ल  कहना  नहीं  आता  कवी चोला  नहीं भाता,
मगर तुम आँख में  आकर सियाही  बन टपकती हो।

बना  पागल  जो  छोड़ा  था  हमें  जब बीच रस्ते में,
उसी  दिन  से  मेरे  अंदर  बनी  ग़ज़लें सिसकती हो।

पड़ा   वीरान   वर्षों  से   नहीं  दिल  में  कोई  आता,
तुम्ही  बस  रात दिन उसमे लिए खंजर भटकती हो।

यक़ीनन तुम भी  पढ़ती हो इसी एहसास की ग़ज़लें,
भरी  आँखों से  ख्वाबों को पलँग पे जा पटकती हो।


हरेन्द्र सिंह कुशवाह
       एहसास
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